रविवार, 26 जून 2022

गढ़वाली जागर : डौंडिया वीर नारसिंह की कथा

 गढ़वाली जागर नारसिंह : गढ़वाल का न्याय देवता


 

डौंडिया वीर नारसिंह गढ़वाल का एक इष्ट देवता है जिसे कि न्याय के देवता की मान्यता दी जाती है। जागरों में वर्णित कथा वस्तु के आधार पर इसका रूप बड़ा भयानक है जिसे देखकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। इसे धरती पर बुलाने के लिए जो ताल बजायी जाती है। वह हृदय को भी हिला देती है, इस देवता की उत्पत्ति कहाँ कैसे और क्यों हुई इसका उल्लेख जागर गाथाओं में इस प्रकार हुआ है-

         एक बार भगवान शिव जब अपनी बारह वर्षीय ध्यान मुद्रा से जागे तो उन्होंने देखा कि सारे हिमालय में बर्फ ही बर्फ फैली हुए है। बर्फ को देखते ही उनके नंगे शरीर पर शीत वायु से झुरझुरी होने लगी। उन्होंने सबसे पहले अपने शरीर पर बाघम्बर कसा लेकिन बाघम्बर से भी जब इनके शरीर की कँपकँपी नहीं छूटी तो इन्होंने शरीर पर चिता भस्म लगाना प्रारम्भ कर दिया। इसके बाद भी जब वे अपने शरीर को ठंड से नहीं बचा पाये तो उन्होंने देवी पार्वती को धुनि (अग्नि कुण्ड) प्रज्ज्वलित करने को कहा। माँ पार्वती ने महाकाल शिव के लिए शीघ्र ही उनका विशाल धूना प्रज्ज्वलित किया। भगवान शिव अब आग तापने लगे थे लेकिन जब फिर भी जलती हुए अग्नि इन्हें सन्तुष्ट कर सकी तो उन्होंने मन ही मन अपनी प्रिय बूटी भांग पीने का निश्चय कर लिया ताकि इससे उनके शरीर के अन्दर कुछगर्मी आये और उन्हें इस तन को कँपा देने वाली ठंड से छुटकारा मिले। उन्होंने शीघ्र ही माँ पार्वती को अपने निकट आने का संकेत करते हुए कहा 'हे उमा! जरा यहाँ आकर मेरी खरबा की झोली तो ढूँढो, मैंने उसमें अपनी विजया बूटी रखी है।' माँ पार्वती शीघ्र ही भगवान शिव के पास आकर उनकी खरबा की झोली ढूँढने लगी। जब काफी ढूँढने पर पार्वती को खरबा की झोली नहीं मिली तो वे भगवान शिव से

बोली "स्वामी ! खरबा की झोली तो मुझे यहाँ कहीं भी नहीं दिखाई दे रही हैं जरा आप ध्यान लगाकर तो देखो कि आपने अपनी झोली कहाँ रखी है?"

                पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव ने अपना अखण्ड लगाया तो उन्हें ज्ञात हो गया कि 'पिछले बारह वर्षों से मेरी खरबा झाली, धोली उड्यारी के एक पेड़ में लटकी हुई है।' इसके पश्चात् उन्होंने जैसे हो। अपना ध्यान तोड़ा अपने सेवक वीरभद्र (वीर) को बुलाया और कहा-"हे वीर भद्र! तुम शीघ्र ही धोली उड्यारी जाओ और वहाँ से मेरी खरुवा की। झोली ले आओ।"

 स्वामी की आज्ञा को सुनकर वीरभद्र आकाश मार्ग से शीघ्र ही ली उड्यारी पहुँचा और उसने पेड़ की डाल से खरूवा की झोली उतार कर में टाँक ली और जिस गति से आया था उसी गति से कैलाश पहुँच गया। वीरभद्र जैसे ही कैलाश पहुँचा भगवान शिव ने उससे अति प्रसन्न होकर कहा- “वीरभद्र तुमने मुझे इस कड़ाके की ठण्ड से बचाने का उपाय कर लिया है इसलिए अब तुम भी विश्राम करो। "

इसके पश्चात् भगवान शिव ने अपने बायें हाथ में विजया बूटी को लिया और दाहिने हाथ के अंगूठे से रगड़कर उसका चूर्ण बनाने लगे। इसी से क्रम में बूटी को महीन बनाते समय इनके हाथ में भांग का एक बीज गया जिसे कि उन्होंने अपनी सगोड़ी बाड़ियों में फेंक दिया और इसके पश्चात् निश्चित होकर उन्होंने बूटी को अपनी साज में भरा और अग्नि का स्पर्श देकर जोर-जोर से दम मारने लगे। तब तत्काल ही इस बूटी ने अपना प्रभाव छोड़ा और भगवान के शरीर की कँपकँपी कम होने लगी जिसके फलस्वरूप इनके शरीर में गर्मी का संचार होने लगा और भगवान शिव अव शान्त तथा प्रसन्न चित्त हो गये।

 इस घटना को घंटे अभी दो-चार दिन ही बीते होंगे कि एक दिन भगवती भवानी जब अपने बाग बगीचे में गुड़ाई कर रही थी तो उसकी दृष्टि एक ऐसे लघु सुकुमार पौधे पर पड़ी जो कि अभी-अभी अंकुरित होकर जमीन से उठ रहा था। उसे देखते ही भगवती पार्वती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि "मेरे बगीचे में यह अजनबी पौधा किस अन्न, वृक्ष या लता का है। इसे वह जितना भी देखती उनकी जिज्ञासा उतनी बलवती होती जाती। बहुतसोच-सोच कर जब वह थक गई तो उन्होंने इस पौधे के विषय में भगवान शिव को बताते हुए कहा-"स्वामी! मेरे बगीचे में एक ऐसा पौधा जमा हुआ है जिसे मैंने अभी तक तीन लोक, सात खण्ड पृथ्वी में नहीं देखा, इसे मैंने अभी तकदेवताओं की बाड़ियों में देखा, नहीं राक्षसों के सगोड़ों में, नहीं किन्नरों के यहाँ देखा, नहीं यक्षों के यहाँ स्वामी! बताइए यह किस अन्न, वृक्ष या लता का पौधा है?

 

भगवान शिव पार्वती की ओर देखकर मुस्काए और बोले- "उमा ! जरा दिखाओ तो सही तुम्हारी बाड़ी में वह पौधा कहाँ पर जमा है? भगवान शिव यह कहते हुए अपने बाघम्बरी आसन से उठने लगे। माँ पार्वती उन्हें अपने हाथ का सहारा देकर बाड़ी के उस स्थान पर ले आई जहाँ पर यह पौधा अंकुरित हो रहा था। भगवान शिव ने जैसे ही इस अंकुरित पौधे को देखा वे इसको छूकर बोले - “गौरा! यह तो कलवर (कल्पवृक्ष) डाली है। जो बड़ी कठिनाई से जमती है इसलिए तुम्हें अब इसकी सावधानी से देखभाल करनी होगी।"

 

भगवान शंकर की बात सुनकर पार्वती प्रसन्नता से झूमने लगी। वृक्ष, लता और फूल रोपण करना वे अपना धर्म समझती थी, इसीलिए उन्होंने इस छोटे से पौधे की देखभाल अपने पुत्र के समान करनी प्रारम्भ कर दी।

 

भगवती पार्वती ने सर्वप्रथम इस कलवर डाली के लिए सुन्दर क्यारी बनाई और फिर उसकी जड़ में गोबर डाला, गोबर डालते ही वह डाली एक में पत्ती हो गयी। फिर भवानी ने उसकी जड़ में पानी डाला, कलवर डाली दुपत्री हो गई। माँ ने फिर उसकी गुड़ाई की, कलवर डाली चौपत्ती हो गई और उसके बाद वह कभी उसकी जड़ पर मिट्टी लगाती थाल बनाती और ऊपर से उसकी पत्तियों को जल से नहलाती। देखते ही देखते कलवर डाली पर असंख्य पत्तियाँ आने लगी। फिर उसके कल्ले फूटे, शाखायें बनी और शाखाओं के मुख पर लगी पत्तियों के बीच सफेद-सफेद फूल खिलने लगे। माँ पार्वती अब इस पौधे को भगवान शिव की सवारी नन्दी से बचाने लगी

थी। इन फूलों पर काले भौरे झूलने लगे। माँ पार्वती इन्हें देखकर मन ही मन प्रसन्न होती थी और शिव पार्वती की प्रसन्नता को देखकर। समय आया और एक दिन इसके सफेद फूल फलों में परिवर्तित होने लगे। देखते ही देखते सारा पेड़ फलों से लद गया और ऐसे लगने लगा जैसे पेड़ की।शाखाओं ने अंडे उगल दिये हों। इन फलों को देखकर पार्वती की हर्ष की सीमा नहीं रही धीरे-धीरे कुछ समय के पश्चात् इस कलवर डाली के सारे फल (भांग के बीज) धरती में झड़ने लगे और डाली पर रह गया मात्र एक फल जो कि धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। इसे देखकर माँ पार्वती को आश्चर्य होने लगा कि "सारे फल तो झड़ गये हैं लेकिन यह फल क्यों नहीं झड़ रहा है?" यही समस्या जब उन्होंने बाबा भोलेशंकर के समक्ष रखी, तो भगवान शंकर मुस्कराने लगे। भगवती पार्वती को भगवान शंकर के मुस्कराने पर बड़ा क्रोध आया, और उन्होंने भगवान शंकर से कहा- "स्वामी! मैं अपनी इस जिज्ञासा तथा समस्या को आपके सामने लेकर आयी हूँ और आप हैं कि मेरी समस्या को सुलझाने के बजाये उस पर हँस रहे हैं। भगवान शंकर ने पार्वती को समझाया देवी तुम्हें इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए, मैं तो तुम्हारी बात पर सिर्फ इसलिए हँस रहा था कि तुम त्रिलोक की माँ और अन्नपूर्णा होने पर भी यह नहीं समझ सकी, कि इस फल पर मेरी दृष्टि लगी हुई है। इसी कारण अब तक यह फल धरती में नहीं गिरा लेकिन अब तुमने यहाँ पर क्रोधित होकर इस फल के अन्दर पलने वाले मेरे मानस पुत्र (शिवांश) का रूप ही बिगाड़ दिया।" 'कैसा मानस पुत्र? और कैसा रूप?' पार्वती ने शिव से प्रश्न किया।

 

चूँकि इस कलरव डाली की उत्पत्ति मेरे स्पर्श से हुई इसलिए इसके फल के अन्दर जिस जीव की उत्पत्ति होती, वह कार्तिकेय की तरह वीर, सौम्य, न्यायप्रिय और सुन्दर होता लेकिन तुम्हारे क्रोधित होने से उसकी सौम्यता और सुन्दर रूप नष्ट हो गया है," भगवान शिव ने पार्वती को उलाहना देते हुए कहा 'ऐसा नहीं हो सकता देवादिदेव! आपका मानस पुत्र कभी विकृत नहीं हो सकता- ऐसा कहते "हुए पार्वती शिव के समक्ष बैठकर उनके चरण दबाने लगी।' 'कैसे नहीं हो सकता? देवी! यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो मैं अभीइसका प्रमाण दे देता हूँ। यह कहते हुए भगवान शंकर अपने आसन से उठे और चिमटा हाथ में लेकर पार्वती की बाड़ी की ओर बढ़े। शिव के आसन छोड़ने के साथ ही साथ पार्वती भी शिव के पीछे-पीछे अपनी वाटिका तक गई।कलवर डाली के निकट पहुँचते ही भगवान शिव ने उसके उसी इकलौते फल पर चिमटे से प्रहार किया जो कि अन्य फलों की तरह सामान्य नहीं था।

चिमटे की चोट पड़ते ही फल दो हिस्से में बँट गया और उससे निकला एक काला कलूटा खुली जटा वाला जोगी, जिसके लम्बे-लम्बे दांत और नाखून थे, जिसने शरीर पर बभूति धारण की थी, जिसकी आँखे लाल थी तथा वह एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में सफेद झँडा पकड़े हुए था। बाघम्बर घारी वह विचित्र वेश वाला जोगी जैसे ही फल से बाहर निकला "शिव पार्वती को प्रणाम करके खड़ा होकर बोला- "मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामी? कहो मुझे क्यों जन्म दिया गया है, " इस अनोखे वेश वाले प्राणी को देखकर पार्वती बहुत डर गयी लेकिन जैसे ही उसने बादलों की गड़गड़ाहट के समान अपना स्वर निकाला पार्वती को बेहोशी गयी।

पार्वती की यह दशा देख कर भगवान शंकर उन्हें होश में लाने काप्रयत्न करने लगे। इसी बीच वह विवित्र जोगी घबराकर भागने लगा। पार्वती को उसी समय होश गया। भगवान शंकर जब आश्वस्त हुए तो उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। सद्यप्रसूत जोगी उस स्थान से दूर भागता दिखाई दिया।

 

भगवान शंकर ने उसे आवाज देकर रुक जाने के लिए कहा, परन्तु वह रुका नहीं, इस पर पार्वती उसे देखकर फिर डर जाय यहीं सोचकर वे चुप हो गये। लेकिन इसके बाद उन्होंने अपने गणों से यह डोंडी पिटवा दी, कि 'जिस किसी को भी वह विचित्र जोगी दिखे उसे तुरन्त शिव के पास पहुँचा दे।' इसी डौंडि (दुन्दभी) पिटने के कारण सब गण उसे डौंडिया कहकर खोजने लगे।

इधर वह शिवांश डौंडिया भागता-भागता हूण देश चला गया। ऐसे हूणदेश (तिब्बत) जहाँ नमक की खानें थी। डौंडिया वीर उन्हीं नमक की खानों में जाकर छुप गया और जहाँ झंगोरे का अन्न खाकर अपना पेट भरने लगा। कुछ समय के पश्चात् गढ़वाल से ब्रह्म उनियाल नामक एक नमक का व्यापारी अपने सात पुत्रों के साथ हूण देश पहुँचा और नमक के खान के स्वामियों से सात भार (झाठी) नमक का सौदा करने लगा। खान स्वामियों ने जैसे ही नमक का सौदा किया और व्यापारी अपने थैलों में नमक भरने लगे तो इसी बीच डौंडिया वीर अपना छोटा सा रूप बनाकरब्रह्म उनियाल के झींठी में बैठ गया। जब सब व्यापारियों की झीठियाँ भर गई तो उन्होंने अपनी-अपनी झीठियाँ कंधे पर रखी और गढ़वाल की ओर आने लगे, उन्होंने जैसे ही हूण देश की सीमा छोड़कर गढ़वाल की सीमा में प्रवेश किया तो ब्रह्म उनियाल की झींठी भारी होने लगी। उसने अपने बड़े लड़के को अपने पास बुलाया और बोला कि 'बेटे! मेरा नमक से भरा भाई काफी भारी हो गया है। तुम जवान हो इसलिए इस भारी झींठी को तुम उठा लो और मैं तुम्हारी हलकी झींठी को ले चलूँगा।'

पिता की बात मानकर ब्रह्म उनियाल का बड़ा लड़का जैसे ही पिता का भार उठाने लगा, उसे भी यह भार और अधिक भारी लगने लगा, इसीलिए उसने नमक के इस भार को जमीन में रखते हुए पिता से कहा- 'पिताजी यह भार तो मुझसे भी नहीं उठाया जा रहा है, क्या कारण है कि यह भारी पर भारी हो रहा है?'

"यह तो मेरी भी समझ में नहीं रहा बेटा!  मंडी में तो मैंने उतना ही नमक भरा था जितना उठा सका था लेकिन एकाएक यह भारी कैसे हो गया?"

लड़का बोला- “आज तो कोई अनहोनी बात हो रही है पिताजी! इससे पहले ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था" अपने पिता और भाई की सुनकर ब्रह्म उनियाल के अन्य लड़के भी रुक गये। सबने एक-एक करके अपने भार कंधे से उतारे और उस नमक के भार को अपने हाथों से तोलने लगे जिसका भार बढ़ रहा था। इसी बीच नमक की झींठी भारी होने केसाथ-साथ फैलने भी लगी थी। लेकिन जब वह फैलती ही गई तो एकाएक से फट गई और उससे निकल पड़ा वह अन्यायी वीर डौंडिया जो हूण देश से उनके साथ चला था।

क्रोध के साक्षात् अवतार उस डौंडिया वीर ने ब्रह्म उनियाल के बड़े लड़के को मार डाला और उसकी आंतों की माला गले में पहनकर नाचने लगा। उसके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्म उनियाल और उसके अन्य पुत्र भी भागने लगे, परन्तु वह तो माँ पार्वती की क्रोध की छाया से उपजावीर था। उसने फिर ब्रह्म उनियाल के दूसरे पुत्र को भी मार डाला ब्रह्मउनियाल का दूसरा पुत्र जैसे ही मारा गया। उसके और पांच बेटे अपने दोनों भाईयों की लाशों को तीथाण (तीर्थस्थान- शमशान) में ले गये लेकिन डॉडिया वीर ने वहाँ भी उनका साथ नहीं छोड़ा। जैसे उन्होंने दोनों मुर्दों की लाशों को चिता में रखा। डौंडिया ने प्रकट होकर ब्रह्म उनियाल के बड़े लड़के की लाश की बांह उखाड़ ली और उसकी हड्डी को मुँह पर लगाकर बांसुरी की तरह बजाने लगा। उसका यह भयानक रूप और कार्य देखकर ब्रह्म उनियाल के अन्य बेटे भागने लगे लेकिन उसने धीरे-धीरे उसके सभी बेटों को मार डाला।

इस पर ब्रह्म उनियाल जोर-जोर से रोने लगा चूंकि आज उसकी सातों बहुए विधवा हो गयी थी इसलिए अब उसके कुल को बचाने वाला कोई भी नहीं बचा। घर में उसके छोटे-छोटे नाती-पोते थे। जिनकी देखभाल और उनकी रक्षा करना ब्रह्म उनियाल का दायित्व बन गया था इसीलिए पहले डौंडिया वीर और कुछ करता, उनसे उसके दोनों पांव पकड़ लिए और रोते हुए कहा कि "हे वीर! अब बस करो, मेरे सातों बहुओं को तुमने विधवा बना दिया है। मेरे घर में अब मेरे छोटे-छोटे नाती-पोतों के अतिरिक्त कोई नहीं बचा। आपने मेरे जो सातों पुत्रों की बलि ले ली, हम से ऐसा क्या अपराध हुआ और यदि आप आगे भी बलि लेना चाहते हैं तो क्षमा करें मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि अब मेरे परिवार का पालन कौन करेगा?" नाटा डौंडिया वीर जिसकी आँखे क्रोध से अंगारों के समान जल रही थी,उसका मुँह ताजे रक्त से सना, काला वर्ण, फैली जटा और जटा पर मुर्दे की कफन की सफेद चीर बंधी हुई थी। ब्रह्म उनियाल से बोला- "मैं तुम्हें तुम्हारे वंशजों को छोड़ता हूँ परन्तु इसके लिए तुम्हें मुझे एक वचन देना होगा।" "कौन सा वचन वीर?"

"मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे अपना इष्ट देव बनाकर मेरी पूजा करो यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारे सारे वंश का विनाश कर दूँगा।"

"ऐसा करें वीर हम तुम्हारी नाती नन्तान पुत्र सन्तान तक पूजा करेंगे, लेकिन यह पूजा कैसी होगी आप हमें यह भी तो बताएं" उनियाल रोते हुए बोला- "तुम्हें मेरे लिए हर पांच वर्ष में खाडू (मँढ़ा) की बलि चढ़ानी होगी। सवां के अन्न का पाथा और धोली उड्यारी में भैरवी द्यूण त्रिशूल के साथ मेरी सफेद झंडी लगानी होगी। डौंडिया ने जरा शान होकर कहा

ऐसा ही करूंगा हे वीर ऐसा ही करूंगा लेकिन अब तुम मेरे वंश की रक्षा करो" ब्रह्म उनियाल गिड़गिड़ाता हुआ बोला "हे ब्रह्म उनियाल ! अगर तुमने मेरी सच्ची पूजा की तो मैं तेरे वंश की रक्षा के साथ-साथ उन लोगों का भी नाश करूँगा, जो तुम्हें कष्ट पहुँचाएगें।

यह कहते हुए डौंडिया वीर ने धौली उड्यारी की ओर प्रस्थान किया, जहाँ कि गुरु गोरखनाथ अपनी धुनि रमाए बैठे थे। उसी समय इनके समक्ष दूधी नरसिंह, घमेल्या नरसिंह, कच्चा नरसिंह, पक्या नरसिंह आदि नौ नाथ और चैरासी सिद्ध शिष्य भी बैठे थे। जैसे अन्यायी वीर डौंडिया, धौली उड्यारी पहुँचा, गुरुगोरखनाथ ने उसे अपनी मंत्र शक्ति से द्वार पर ही रोक दिया। इससे पहले कि यह वीर यहाँ भी कुछ उत्पात करता, गुरुगोरखनाथ ने उसे अपने मंत्रों से बांध दिया। जब काफी समय हो गया तो उसने गुरु गोरखनाथ से अपनी मंत्र शक्ति कम करके अपने को मुक्त करने के लिए कहा लेकिन गुरुगोरखनाथ ने उससे कहा कि पहले वचन दे कि 'तू यहाँ आकर किसी भी प्रकार की उदण्डता नहीं करेगा।' गुरुगोरखनाथ से क्षमामांगते हुए डौंडिया वीर बोला "गुरु देव! मुझे क्षमा करो मैं आपके पास आकर आपसे आज से किसी भी प्रकार की उदण्डता नहीं करूंगा, " वैसे तो मंत्र शक्ति देखने आया था लेकिन आपने मुझे जीत लिया है। भविष्य में में आपका शिष्य बनकर रहूँगा।

 

गुरु गोरखनाथ बोले- 'यह बात तो ठीक है कि भविष्य में तुम मुझे किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाओगे लेकिन मैं तुम्हें अपना शिष्य तभी बनाऊँगा जब तुम हूण देश का धर्म छोड़ कर नाथ पंथ की दीक्षा लोगे।"

गुरु गोरखनाथ की बात सुनकर मंत्र पाश से बंधा डौंडिया बोला जैसा आप चाहेंगे मैं वैसा ही करूंगा। आप मुझे इस मंत्र बन्धन से मुक्त दीजिये।

डौंडिया वीर का इस प्रकार गिड़गिड़ाना देखकर गुरुगोरखनाथ अपनी मंत्र शक्ति वापस ले लो, और तब डौंडिया वीर आकर गोरखनाथ  जी के चरणों में गिर पड़ा। उसने अपना शरणागत पाकर गुरुगोरखनाथ नेता उसे नाथ पंथ से दीक्षित कर डौंडिया नारसिंह का नाम दे दिया।

                                      --- प्रो. नंद किशोर ढौंडियाल अरूण

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