बुधवार, 29 जून 2022

आत्मा क्या है। उत्तराखंडी गढ़वाली जागर की भूमिका । जागर में आत्मा की अवधारणा

  आत्मा क्या है , आत्मा को कैसे देखें , इस प्रकार के अनगिनत प्रश्न हमारी जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। उत्तराखंडी गढ़वाली जागर धर्मग्रंथों पर आधारित कथाओं का संगीतमय पाठ हैं।इन जागरों में आत्मा के बारे में वृहद विवेचना की गई है। 

गढ़वाली जागर विद्या के विद्वान स्वीकार करते हैं कि जागर की आत्मा शास्त्र सम्मत मान्यताओं का समर्थन करती है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने लोक प्रसिद्ध महाकाव्य 'रामचरित्र मानस' में 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी' कहकर आत्मा के सम्बन्ध में उत्पन्न आशंकाओं और प्रश्नों का उत्तर बड़ी सहज और सरलता से दिया है। उनकी मान्यता है कि "आत्मा ईश्वर का अंश है इसलिए ईश्वर के समान ही यह नष्ट नहीं होती। उसके अन्दर ईश्वर की भाँति चेतना समाहित होती है, वह ईश्वर की भाँति ही पवित्र है, वह सहज अर्थात ईश्वर से ही जन्मी है और ईश्वर की भाँति ही आनन्द रूप में रहती है।" आत्मा के सम्बन्ध में यह सब कुछ कहने से पूर्व गोस्वामी जी कहते हैं कि जो महाकाव्य मैंने अपनी आत्मा और अन्तःकरण के सुख अर्थात् आनन्द के लिए रचा है। उसमें उल्लेखित घटनाएं स्थान, पात्र, कथानक और ज्ञान मेरे गुरुदेव द्वारा मुझे सुनायी कथा के माध्यम से प्राप्त हुई। जिनका स्रोत अनेक पुराण निगम आगम आदि से फूटा है इसलिए मैंने लोक जीवन की घटनाओं और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों के प्रकाश में यह ग्रन्थ रचा है। यहाँ पर गोस्वामी जी इसे कहीं ओर से भी लिया हुआ कहकर उन वेदशास्त्रों तथा इतिहास की ओर संकेत किया है जिनका अध्ययन, श्रवण, चिन्तन और मनन इन्होंने निज जीवन में किया था।

 गोस्वामी जी के द्वारा कहा गया आत्मा सम्बन्धी व्यक्त किया गया यह तथ्य हमारे प्राचीन धर्म ग्रन्थों में भी उपस्थित है, इस बात का समर्थन विद्वान करते हैं।इन सभी धर्म-शास्त्रों की आत्मा सम्बन्धी मान्यताओं का प्रयोगात्मक स्वरूप यदि कहीं देखा जा सकता है तो वह है 'जागर'

गढ़वाली जागर क्या है :

जागर जिसे ऋग्वेद में भी जागर ही कहा गया है। वेदों में इस जागर शब्द से ही जज्ञ- जग्य और वर्तमान का यज्ञ शब्द निकला है जिसमें की देवतात्माओं को मंत्र, स्तुति और कर्मगाथा गाकर जागृत किया जाता है। सम्भवतः इस यज्ञ का आदिरूप हमारा यही जागर था जिसमें कि अदृश्य आत्माओं का आह्वान कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है जो अदृश्य रूप में सर्वत्र व्याप्त है लेकिन जब उन्हें ऋषि स्तुति गान और मंत्रो के माध्यम से यज्ञ में जागृत करते थे तो इसके लिए वे उस अग्नि का आह्वान करते थे जो अरणि से उत्पन्न की जाती थी। यह अरणि शमी वृक्ष की होती थी। इसकी घोषणा महाकवि कलिदास ने अपने विश्व विश्रुत नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में अग्नि गर्भाशमीवा कहकर की है इस यज्ञ प्रक्रिया से यह सिद्ध होता है कि अग्नि एक ऐसा देवात्मा है जो सम्पूर्ण सृष्टि में सूक्ष्म रूप से व्याप्त है लेकिन जब ऋषिगण उसके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते थे तब वे उसे स्थूल काष्ट में उत्पन्न होने का आह्वान करते थे। उनकी मंत्र शक्ति, स्तुतिगान और घर्षण से जब वह स्थूल रूप (गैस रूप) में उत्पन्न होता था तो ऋषियों के द्वारा प्रस्तुत की गयी घृतचरू आदि हवन सामग्री का भक्षण करता था। इसके पश्चात् वह उस सामाग्री को भी अपनी ज्वलनशील शक्ति देता है जो उसके निमित्त रखी जाती थी जैसा कि ज्ञातव्य है कि एक लघु स्फुलिंग जब स्थूल पदार्थों को अपनी शक्ति और रूप प्रदान करता है तो उसके प्रभाव और स्पर्श से अंगारा बन भौतिक पदार्थ भी उसी भाँति तपन, जलन, प्रकाश आदि देकर सम्पूर्ण जगत को भस्मी भूत कर सकता है उसी प्रकार जागर में आहूतात्मा भी यज्ञ, वन, जठर और जल अग्नि के समान स्थूल शरीर में सूक्ष्म रूप से प्रकट होकर अपने गुण, शक्ति, प्रभाव से स्थूल शरीर को प्रदान करता है जिससे पश्वा (जिसके शरीर में आत्मा उतरता है) को दे देती है। जिससे वह मूल आत्मा की भाँति ऐसे असम्भव और आश्चर्यजनक कृत्य करता है जिसे देखकर सामान्य जन ही नहीं शिक्षित और तर्क बुद्धि वाला व्यक्ति भी उसे देवता या आत्मा स्वीकार कर नतमस्तक हो जाता है।

  आत्मा की अवधारणा , आत्मा क्या है:

वेदों के ही अंश वेदांग (वेदान्त) उपनिषदों में भी आत्मा सम्बन्धीजिन तथ्यों और सत्यों पर विचार किया गया है। वह है आत्मा की अमरता। आत्मा अमर है शरीर त्याग के पश्चात् भी उसका अस्तित्व बना रहता है इसकी घोषणा गीता भी करती है। वही गीता जिसे विद्वान समस्त उपनिषदों का सार स्वीकारते हैं। 'वह कभी नहीं मरती है और मृत्यु के जीवित रहती है' इसकी घोषणा भगवान कृष्ण ने गीता में की है। जागर भी पश्चात् भी भगवान कृष्ण के इस उपनिषिदीय वाक्य का समर्थन करते हैं इसलिए इसी बात को सिद्ध करने के लिए जागरी गोलोकवासी आत्मा को पश्वा के शरीर में उतार कर यह सिद्ध करता है कि 'जिस देवता या व्यक्ति को संसार मृतक मानता है वह अमर है इसीलिए वह पश्वा के शरीर में प्रवेश कर अपने स्थूल शरीर के गुणों और स्वभावों का प्रदर्शन करता है।'

श्रीमद्भागवत के धुन्धकारी प्रसंग में महर्षि व्यास का कथन है कि अकाल मृत्यु या हत्या के माध्यम से शरीर छोड़ने वाली आत्माएं तब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं होती जब तक उनकी आयु या इच्छाएं पूर्ण नहीं हो जाती' इसी को सिद्ध करने के लिए व्यास जी ने महर्षि गोकर्ण के द्वारा निज भ्राता धुन्धकारी तथा माता धुन्धी के निमित्त श्रीमद्भागवत ज्ञान यज्ञ का आयोजन किया जिसके फलस्वरूप इन दोनो अशरीरी आत्माओं को शान्ति प्राप्त हुई। यदि इन आत्माओं को शान्ति के लिए कोई अनुष्ठान नहीं किया जाता तो ये प्रेतात्मा अनेक शरीर धारण करके भटकती रहती है। इसी की ओर संकेत करते हुए गोस्वामी तुलसीदास और कविवर नरेश मेहत्ता की मान्यता है कि 'जब तक प्रेतात्मा को शान्ति नहीं मिलती वह भटकती रहती है।' इसके संदर्भ में वे दशरथ के उस प्रसंग की ओर संकेत करते हैं कि 'रामवनवास के कारण जब महाराजा दशरथ दिवंगत हुए तो उनकी आत्मा तब तक भटकती रही जब तक चौदह वर्ष के पश्चात् राम का राज्यभिषेक नहीं हुआ '

 हमारा जागर भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि जब तक आत्मा को मोक्ष नहीं प्राप्त होता तब तक वह भटकती रहती है इसी भटकन को दूर करने और मोक्ष प्राप्ति के निमित्त उस आत्मा के इहलौकिक स्वजन जागर यज्ञ का आयोजन करते है जिसमें कि वह आत्मा पश्वा के शरीर के माध्यम से प्रकट होकर अपनी इहलौकिक इच्छाओं की पूर्ति करता है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा तरंगो के रूप को प्राप्त हो जाती है ठीक ऐसे ही जैसे ध्वनि तरंग होती है तथा इस अवस्था में वह अंतरिक्ष में विचरण करने लगती है ऐसी स्थिति में यदि उसका आह्वान सृष्टि के किसी भी भाग में किया जाता है तो वह वहीं प्रकट हो जाती है ठीक ऐसे ही जैसे ध्वनि तरंगो को अन्तरिक्ष धरती या सागर तल में समान रूप से सुना जा सकता है। इसका उदाहरण वर्तमान के हमारे संचार यन्त्र है जिनके माध्यम से हम एक ही साथ एक ही ध्वनि को विभिन्न स्थानों में सुन सकते है। जागर का आत्मतत्व ध्वनि रूप होने के कारण जब किसी शरीरधारी के शरीर पर अवतरित होता है तो वह ध्वनि के समान प्रकम्पन्न करने लगता है। इसी ध्वनि रूप होने के कारण उसे भी सृष्टि के किसी भी भाग में बुलाया जा सकता है। वह ध्वनिवत सभी जगह व्याप्त और उपस्थित हो सकती है। जैसे ईश्वरात्मा का स्मरण हम किसी भी लोक या स्थान पर कर सकते हैं।

 श्रीमद्भगवत गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि 'संसार में जो भी जड़ चेतन, स्थावर, जंगम प्राणी और वस्तुएँ हैं वे सभी मेरे ही रूप हैं।' इसका वास्तविक अर्थ है कि संसार के समस्त देवता, राजा, पर्वत, सागर, नदियाँ, पशु, पक्षी आदि सभी इस कथन को सिद्ध करते हैं इनकी पूजा करना प्रभु पूजा करने के समान है.

 जागरों के पात्र :

जागरों के भी इनके सभी पूज्य पात्र देवताओं की श्रेणी में आते हैं। वह चाहे निराकार निरंकार देवता हो, उसका सूनी गरूड़ हो, पैंयावृक्ष हो पुराण पुरूषों, राम-सीता, कृष्ण-रूक्मिणी, पाण्डवों मैं कुन्ती, युधिष्ठिर, दुर्योधन, भीम 'अर्जुन' नकुल सहदेव, ऋषि मुनियों में गोरखनाथ, भैरवनाथ, नरसिंह, डौंडिया नारसिंह, जलंधरनाथ, मत्स्येन्द्र नाथ सिद्धबली, इतिहास पुरूषों में समस्त वीर भड़, रणभूत, हन्तयाँ अनंग और अनिष्ठकारिणी शक्तियों में, भूत ऐड़ी, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, छलभूत आदि देवी शक्तियों में ज्वाला उफरैं, अम्बा आमादीवा, नन्दा आदि सभी देवियाँ ईश्वरका अंश और उसी का रूप स्वीकारा जाता है। यही नहीं जागरों में पत्थर, वृक्ष, जल, अग्नि आदि प्राकृतिक अवयवों को ईश्वर का रूप स्वीकार, उन्हें इष्ट देवता के रूप में सम्मान दिया जाता है। नाग (सर्प), गरूड़, गाय आदि की प्रत्यक्ष पूजा यहाँ जागरों की पुरानी परम्परा है। जागरों में पित्रों को पिण्डदान करने का प्राविधान है।

:प्रोफेसर नन्दकिशोर ढौंडियाल 'अरुण'

डी.लिट्.

'अरूणोदय'

गढ़वाली चौक, ध्रुवपुर कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल

 


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